Hindi Poetry | खामखा ही निकल जाता हूं

Hindi Poetry

खामखा ही निकल जाता हूं,

 

खामखा ही निकल गया था,

 

भीड़ में अपनी पहचान बनाने ,

 

चंद कागज़ के टुकड़े जेबो में भरने।

 

 

 

 

लड़ाई मेरी खुद से ही थी,

 

दुसरो को कुछ दिखाने,

 

अपनो से दूर आ गया हूं

 

खामखा ही निकल जाता हूं,

 

खामखा ही निकल गया था,

 

 

 

 

 

मुश्किलें मेरी अपनी थी,

 

सवाल भी मेरे थे,

 

आज कुछ दूर आकर घर से,

 

वही रोटी फिर खा रहा हूं

 

जीतने की चाहत भी थी,

 

हारने से घबरा रहा था,

 

चार कदम निकल कर शहर से,

 

जीत कर फिर आज हार गया हूं

 

खामखा ही निकल जाता हूं,

 

खामखा ही निकल गया था,

 

आभासी इस दुनिया के,

 

चोचलों को सच मान रहा हूं,

 

गाव की उस मिटटी को

 

आज फिर कोस रहा हूं

 

 

 

उड़ने की आजादी तो अब मिली है,

 

जंजीर से बंधे मेरे पैरो को

 

 

 

देखकर ही इतरा रहा हूं,

 

खामखा ही निकल जाता हूं,

 

खामखा ही निकल गया था,

 

वीकेंड और सैलेरी क्रेडिट

 

के मैसेज के इंतेजार में ही,

 

हफ्ते दर हफ्ते ,महीने दर महीने ,

 

साल गुज़ार रहा हूं।

 

 

 

 

जिस टिफिन को स्कूल में खाते वक्त बड़े सपने देखता था,

 

आज उसी टिफिन को महीने में कभी कभी खा रहा हूं ।

 

खामखा ही निकल जाता हूं,

 

खामखा ही निकल गया था,

 

मुस्कराहट जो एक वक्त पर,

 

बीना कारण आ जाय करती थी,

 

आज उसे ढूंढने के लिए,

 

यू ट्यूब पर aib और clc के वीडियो देखें जा रहा हूं ।

 

जिंदगी की एक सच्चाई है,

 

के पैसो से ख़ुशी नही मिलती

 

मैं बस उसी सच्चाई को दरकिनार करके,

 

रोज़ अँधेरे में निकल कर अँधेरे में वापस आ रहा हूं।

 

खामखा ही निकल जाता हूं,

 

खामखा ही निकल गया था,

 

 

 

 

 

 

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