Memories of Ganesh Chaturthi

Memories of Ganesh Chaturthi

 

Memories of Ganesh Chaturthi

 

गणेश चतुर्थी एक ऐसा त्योहार जो समाज के हर वर्ग के लोगो को एकजुट करता है। 1893 मे जब अंग्रेजो मे राजनीतिक सभाओ पर रोक लगा दी थी तब राष्ट्रीय नेता बाल गंगाधर तिलक ने इस त्योहार की शुरुवात की जिससे दस दिन तक त्योहार के बहाने सब लोग एक जगह आकर अंग्रेजो के खिलाफ योजना बना सके ।  वैसे इस त्योहार की शुरुवात एक सामुहिक त्योहार के रुप मे हुई थी और फिर धीरे-धीरे अब एक निजी त्योहार बन गया है। अब हर चौराहे पर तो गणेश जी की स्थापना तो होती है परंतु उस दौरान आयोजित होने वाले कार्यक्रमो मे उतने लोग नही होते जो पहले आते थे। अब हर कोई अपने घर मे ही गणेशजी की पूजा कर लेता है। हालाकी आज भी देश के कई हिस्सो मे खासकर महाराष्ट्र मे इसे एक सामुहिक  उत्सव के रुप मे ही मनाया जाता है।

 

इस गणेश चतुर्थी मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गये। राजा भोज की नगरी धार मे मैंने अपना काफी बचपन  गुजारा  और इस त्योहार पर तो हम खास तैय्यारी करते थे। मुझे आज भी याद है मैं “ बडे रावले “  मे रहता था।  हमारा मोहल्ला काफी बडा था इसे छोटा गाव कहे तो गलत नही होगा।  पूरे मोह्ल्ले मे दो गणेशजी की स्थापना  होती थी। हम सब दोस्त बाजार से एक रसीद कट्टा ले आते थे और उससे पहली रसीद उसी दुकानदार की काट देते थे और रसीद कट्टे के पैसे नही देने पड्ते थे।  रविवार और बाकी दिन स्कूल से आने के बाद हम लोग चंदा लेने मोह्ह्ले मे निकल जाते थे।

 

11, 21, 51 तो कभी कभी 101 रुपये चंदे मे पाकर हम फूले नही समाते थे। जैसा मैंने कहा के हमारा मोहह्ला काफी बडा था और इसिलिये दो गणेशजी की स्थापना होती थी तो हमारे एरिया फिक्स थे हम मोह्ह्ले के दुसरे एरिया मे चंदा लेने नही जाते थे और ना वो लोग इधर आते थे। वैसे ये सिर्फ चंदे के लिये था। बाकी हम सब दोस्त साथ ही खेला करते थे । वैसे ये दो गणेशजी की स्थापना  पहले नही होती थी । हमारे मोहह्ले मे आने का एक ही रास्ता था और गणेशजी की स्थापना गेट के उपर एक स्थान था वहा की जाती थी । अब जो लोग गेट से दूर रहते थे उन्हे वहा होने वाले कार्यक्रम देखने बाहर तक जाना पडता था साथ ही इतने लोग थे हर बच्चा कार्यक्रम मे भाग ले ये थोडा मुश्किल था। इसिलिये हम सब दोस्त जो गेट से थोडा अंदर रहते थे उन्होने ये सोचा के क्यो ना हम अंदर भी गणेशजी की स्थापना करे । हमने कुछ बडे लोगो से बात की और उन्हे हमारा ये आईडिया पसंद आया ।

 

हमने फिर जगह तलाशना शुरु की और फिर थोडी मशक्त के बाद मुर्ती की स्थापना “आलू वाले आंटीजी “ के घर के बाहर करने की बात पक्की हुई। आंटीजी  वैसे मेरे स्कूल के दोस्त प्रतीक के ताईजी थे परंतु उनका आलू का बिजनेस था इसिलिये सब उन्हे आलू वाले आंटीजी कहते थे।इसके साथ ही आंटीजी ” राम”  नाम लिखने की किताब भी देती थी।  सबसे चंदा इक्क्ठा करके हम लोग गणेशजी की मूर्ती बूक कर आये और चतुर्थी के दिन सब अंकल जो हमेशा राय देते थे उनसे मुहूर्त  पुछ कर चल दिये गणेशजी को लाने।  हमने तीन साल तक अंदर गणेशजी की मुर्ती की स्थापन की फिर ना जाने क्या हुआ अचानक से स्थापना होना बंद हो गई , कारण जो रहा हो मुझे लगता है ग़णेशजी शायद इतने वक्त ही वहा आना चाहते थे।

 

वो तीन साल मुझे हर बार इंतजार रहता था के कब गणेश चतुर्थी  आयेगी। हम लोग एक ठेला करते थे और उस पर एक साफ कपडा बिछाकर एक पटिया रखते थे और उस पर गणेशजी को  लाते थे । गुलाल उडाते हुये ढोल के साथ नाचते हुये लाते थे हम ग़णेश जी को और एक छोटा सा पांडाल बनाते जिसमे मोहह्ले के हर सदस्य का सहयोग रहता था। हम लोग गणेशजी के आसपास एक रस्सी बांध देते थे और हमारे मोहह्ले मे एक भुआजी थे वो ये ध्यान रखते थे के गाय या कोई और जानवर पांडाल के आसपास नही आये। गणेशजी के आगमन के बाद हर दिन कोई ना कोई प्रतियोगिता शाम को होती थी । रस्सी-कूद, चेयर रेस, नींबू रेस, और अंताक्षरी जैसे कई आयोजन हम करवाते थे और इसमे पूरा मोहह्ला शामिल होता था । गणेशजी का प्रसाद  पूरे मोहह्ले मे बाटना, आरती घर –घर देना ये एक अलग की मजा था जीवन का और फिर प्रसाद भी हर दिन किसी ना किसी के यहा से आ जाता था।  कभी कभी तो हमने एक वक्त मे तीन-तीन घरो से आये प्रसाद का भोग लगाया था।

 

 

 

10 दिन बाद जब गणेशजी के जाने का वक्त आता था तो लगता था के जैसे घर का कोई सदस्य जा रहा हो।  फिर से ठैला लाते थे और नम आखो से गणेशजी को विदा करते थे।विसर्जन करने के लिये हम लोग देवीजी के तालाब  जाते थे। विसर्जन के दिन धार मे झाकीया निकलती और रातभर घुमते घुमते हम सब दोस्त झाकीया देखते थे। हम सब दोस्तो को रमेश पहलवान की झाकी पसंद थी और सब उसकी झाकी का इंतेजार करते थे। अगले दिन छुट्टी रहती और शाम को  मैं पापा-मम्मी और प्रिया के साथ मे  झाकिया देखने जाता था। दो दिन तक उत्सव के बाद जब नजरे उस जगह जाती थी जहा गणेश जी की स्थापना की थी तो आंखे भर आती थी । कुछ दिन तक तो शाम का वक्त ही नही कटता था। ऐसा था मेरे बचपन का गणेश उत्सव , आपने भी शायद ऐसे ही मनाया हो और अगर आप आज भी ऐसे ही मना रहे तो आप काफी लकी है।

 

धन्यवाद ।

 

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